यहां से भी खत्म हुआ शिवपाल यादव का वर्चस्व

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3 दशक से था मुलायम परिवार का दबदबा
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में सहकारिता के क्षेत्र में सपा और खासकर मुलायम परिवार का ही दबदबा रहा है। सत्ता किसी की भी रही हो, लेकिन बीते करीब 3 दशक से सहकारी ग्रामीण विकास बैंक पर यादव परिवार का कब्जा रहा। हालांकि अब भाजपा ने इस तिलिस्म को तोड़ दिया है। यूपी प्रादेशिक कोआपरेटिव फेडरेशन यानी यूपी पीसीएफ में सभापति और उप-सभापति के चुनाव के बाद सपा का वर्चस्व खत्म हो गया। वाल्मीकि त्रिपाठी यूपी पीसीएफ के अध्यक्ष बने हैं। पीसीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव ही बीते 10 सालों से पीसीएफ के सभापति थे। शिवपाल के हाथ से सहकारिता की आखिरी ताकत भी जा चुकी है। उनके बेटे आदित्य यादव का कार्यकाल खत्म हो गया है। शिवपाल सिंह यादव को सहकारिता का दिग्गज माना जाता है। इस बार सभापति का चयन करने वाले फेडरेशन की 14 सदस्यीय कमेटी में भाजपा के 11 सदस्य निर्विरोध चुने गए हैं। सभापति बनने के लिए फेडरेशन के 14 सदस्यीय बोर्ड में शामिल होना जरूरी है। भाजपा ने आदित्य यादव को बोर्ड का सदस्य तक नहीं बनने दिया है। बाकी बची 3 सीटें महिला कोटे की हैं, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है। उत्तर प्रदेश सहकारिता चुनाव के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब समाजवादी पार्टी किसी भी शीर्ष संस्था पर काबिज नहीं होगी। यूपी कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड, यूपी सहकारी ग्राम विकास बैंक, यूपी राज्य निर्माण सहकारी संघ लिमिटेड, यूपी राज्य निर्माण एवं श्रम विकास सहकारी संघ लिमिटेड के साथ अन्य शीर्ष सहकारी संस्थाओं पर भाजपा का झंडा पहले ही फहरा चुका है। पीसीएफ ही एकमात्र ऐसी संस्था थी, जिसका चुनाव बीजेपी सरकार के पहले कार्यकाल में नहीं हो सका था। इस बार भाजपा ने यहां भी अपना कब्जा जमा लिया है और सपा शून्य पर पहुंच चुकी है। 1960 उत्तर प्रदेश के सहकारी ग्रामीण बैंक के पहले सभापति जगन सिंह रावत बने थे। इसके बाद रऊफ जाफरी और शिवमंगल सिंह 1971 तक सभापति रहे। इसके बाद बैंक की कमान प्रशासक के तौर पर अधिकारियों के हाथ में आ गई। साल 1991 में मुलायम सिंह यादव परिवार की एंट्री हुई। हाकिम सिंह करीब तीन माह के लिए सभापति बने और 1994 में शिवपाल यादव सभापति बने और उसके बाद उनके बेटे आदित्य यादव। केवल एक बार अगस्त 1999 में भाजपा के शासन में तत्कालीन सहकारिता मंत्री रामकुमार वर्मा के भाई सुरजनलाल वर्मा सभापति निर्वाचित हुए थे। इसके बाद तो सपा का ही कब्जा रहा। 2007 से 2012 तक मायावती पांच साल तक मुख्यमंत्री रहीं। बसपा के शासन काल में भी सपाइयों ने कोर्ट में मामला उलझाकर चुनाव नहीं होने दिया और अपने सियासी वर्चस्व को बरकरार रखा था।

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